Wednesday, August 21, 2013

Uttrakhand Flood-देव्याः आपदा या इन्सान का प्रकृति पर अत्याचार


उत्तराखंड देव भूमि के नाम से विख्यात है चार धाम,अति प्राचीन धार्मिक स्थल एवम् अतुलनीय प्राकृतिक सौंदर्य इस राज्य की पहचान है जैसे –जैसे हम पहाड़ो sकी ऊचाई पर पहुचते है खूबसूरती का दायरा बढ़ता जाता है भूस्खलन,अधिक बारिश यहाँ के लिए समान्य बात है लेकिन इस बार आयी त्रासदी ने पुरे राज्य को हाशिए पर ला कर खड़ा कर दिया है,आपदा के  लगभग दो  महीने के बाद भी पीड़ितो तक राहत सामग्री पहुचना आसान नहीं है,लगातार हो रही बारिश और भूस्खलन ने सुदूर बसे गाँव तक पहुचना मुश्किल कर दिया है.केदारनाथ में हुई तबाही का पैमाना बहुत व्यापक था जान –माल की हानि का सही –सही अनुमान लगाना नामुमकिन है इससी के साथ उत्तराखण्ड के अन्य जिला जैसे  उत्तरकाशी,चमोली,तेहरी,  और पिथोरागढ़ में भी  नुकसान बहुत हुआ है.
सरकार ने सेना की मदद से केदारनाथ से तीर्थयात्री और ग्रामीणों को सुरक्षित स्थान पर पंहुचा दिया लेकिन अन्य आपदा ग्रस्त क्षेत्र जैसे बद्रीनाथ,पन्दुकेश्वर,गोविन्दघाट और लम्बागढ़ गाँव में बाढ़ ने नदी किनारे बसे होटल और घरो को ताश के पत्तो की तरह अपने साथ बहा दिया इन होटल और लॉज में रुके तीर्थयात्री कुल संख्या किसी को नहीं पता.गाँव के लोग बताते है की रात के दो बजे वो अपनी जान बचा के अपने घरो को छोड़ कर ऊपर पहाड़ो की तरफ भागे पर होटल में रुके कुछ यात्री इससे पहले संभल पाते नदी उन्हें अपने साथ बहा ले गई.
सरकार अपने स्तर पर कोशिश कर रही है बचाव का कार्य व्यापक रूप से किया गया है पर राहत समाग्री उन्ही गाँव तक पहुच पा रही है जहां तक सड़क साथ देती है,उसके बाद लोगो को सामान अपने पीठ पर बांध अपनी जान को खतरे में डाल कर पहाड़ी के रास्ते आपने घर तक जाना पड़ता है.
हर अख़बार और न्यूज़ चैनल में प्रकृति को ही  तबाही का ज़िम्मेदार ठहरया जा रहा है,नदी ने तबाही मचाई
असमान से आफत आयी लेकिन स्थानीय लोगो की सुने तो कहानी कुछ और ही समझ आती है उनके अनुसार
पहाड़ो ने बहुत समय से बहुत सहन करने के बाद संतुलन का रास्ता अपनाया.विकास के लिए बनाएं जा रहे हजारो जलविधुत परियोजनाओं ने नदियों के मार्ग में दीवार बना कर मानवी आपदा की तरफ़ कदम बढ़ा दिया था  साथ ही पर्यटन को विकसित करने के लिए पहाड़ो को काटकर लॉज,होटल और रास्ते बनाएं जा रहे है जिसके परिणाम स्वरुप पहाड़ो को व्यापक तौर से नुकसान पहुच रहा है.हिमालय की त्रासदी की जिमेदारी प्रकृति नहीं बल्कि पूरी तरह हम इंसानों द्वारा अपनों नदियों और जंगलो का बिना सोचा समझा किया गया दोहन है.एक रिपोर्ट के अनुसार केदारनाथ में हुए तबाही की चेतावनी २००४ में ही एक भू-विज्ञान संस्थान ने दे दी थी साथ में यह सुझाव दिया गया था की  केदारनाथ के पीछे बने झील और ग्लेशियर का लगातार निगरानी और रखरखाव नहीं हुआ तो बड़ी त्रासदी की सम्भवना है  पर सरकार ने इस रिपोर्ट की कोई ध्यान नहीं दिया  जिसका परिणाम  १६-१७ जून २०१३ को एक बड़ी तबाही के रूप में सब के सामने है.

विकास की होड़ ने विनाश का रूप ले लिया पर्वत में रास्ता बनाने के लिए बिस्फोटक का इस्तमाल किया जाता है जिससे ना केवल पहाड़ का एक हिस्सा टूटता है बल्क़ि पुरे पर्वत की नीव को कमजोर कर देता है, लगातार बर्षा कमज़ोर हिस्से भूस्खलन के रूप में गिर जाते है. उत्तरखंड में लगभग कई छोटे बड़े विधुत केंद्र का निर्माण चल रहा है इनके उतर्गत नदियों की दिशा को बदला जा रहा है पहाड़ो में सुरंग बना कर उन्हें भीतर से खोखला किया जा रहा है  बात केवल पहाड़ो के साथ हो रहे छेड़-छाड़ तक सिमित नहीं है.ग्लोबल वार्मिंग का असर भी आसानी से देखा जा सकता है पहाड़ो में गर्मी से पड़े दरार, ग्लेशियर के पिघलने के दर में तेज़ी  और सर्दियों के मोसम का अपेक्षाकृत छोटा होना गंभीरता से सोचने वाले मुद्दा है.क्यूंकि हिमालय से ही हमारे देश की मुख्य नदिया निकलती है यदि ये नदिया समय से पहले सुख जाये तो देश में पानी की गंभीर समस्या उत्पन्न हो सकती है हिमालय जिसे नाजुक परिस्तिथि क्षेत्र के लिए स्थानीय समुदाय के साथ मिलकर विकास की रूप रेखा तैयार करने की आवश्यकता है.
 

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