Thursday, April 25, 2013

परिवार सही संस्कार देने की ज़िम्मेदारी ले


अखबारों के हर एक कोने मैं किसी की लुटती लाज़ की खबर छपती है,विकृत समाज की खबर छपती है,हर कोई पूछ रहा है दोषी कौन है अगर दोषी मिल जाता है तो कानून से सजा की मांग करता है और इससे जायदा  सोचने समझने की कोशिश नहीं करता क्यूंकि हमारे पास इन सब घटनाओ के लिए ज़िम्मेदार कारणों की जानकारी पहेले से ही  है जैसे फिल्म,लडकियों के पहनावा और बहुत कुछ ऐसा जिसमे  हम लोगो का कोई लेना देना नहीं होता हम सिरे से इन सब घटनाओं की ज़िम्मेदारी लेने से भागते है क्यूंकि पुरुष प्रधान समाज कैसे किसी पुरुष के खिलाफ कारवाही करे ,किसी लड़की का यौन शोषण हो तो कही पंचायत  लडकियों के  जीन्स पहनना,मोबइल इस्तमाल करने मैं प्रतिबन्द लगा देता है,समाज और जंगल का फर्क यही समझ आता है अदि जंगली जानवर इन्सान का शिकार करने लगे तो उसे मार दिया जाता है पर हमारे समाज में कोई दरिंदा हो कर किसी महिला का शोषण करे तो समाज उस महिला को पहले सजा देती है उसके चरित्र पर टिप्पणी कर,हमारे घर मैं भी दो तरह से लालन –पालन होता है लडकियों के लिए सीमायें तय है लडको के लिए नहीं हम समाज को आदर्श नारी देना चाहते है लड़की अच्छी –बुरी होती है लड़के हर तरह से स्वीकृत  है इसी तरह की मापदंड की निति एक को  दब्बू और दुसरे को उदण्ड बनती है,क्यों नहीं हम ऐसे लोगो का समाजिक स्थर पर बहिष्कार करे जो दरिंदगी की हद को पर करने की कोशिश करे.

Sunday, April 14, 2013

kya banoge munna


बचपन का  मुझे एक टीवी सीरियल का गाना अभी भी याद है शायद ये सीरियल डी.डी वन पर आता था जिसे बोल कुछ ऐसे थे
मम्मी कहती बनो डाक्टर
पापा कहते अफ़सर
इन्ज़िनिएर बन जाओ भईया
बहना कहती अक्सर
बच्चो के विकास मैं अब
बोलो बच्चो क्या हिस्सा
ये गाना आज भी उतनी ही प्रसंगता रखता था जितनी  तब एक माँ अपने बच्चे का रिजल्ट देख कर  उदास हो जाती है क्यूँ की उनका बच्चा क्लास में टॉप टेन पोजीशन में  नहीं आ पाया एक पाच  साल का बच्चा जो खुद भी अपनी उम्र के टॉप टेन पोजीशन में नहीं आया उससे उम्मीदे है की वो दुनिया की रेस में धोड़े की तरह भागे मुझे लगता है लोग उसे घोड़े की तरह हो गए है जिसकी पीठ पर कोई सवार होकर उसकी आँखों के सामने हरी –हर घास देखा कर काम करवाता है
हरी घास को लोगो को सपनो की तरह देखाया जाता है सपने सक्सेस का,कैरियर का,पोजीशन का और आज का युवक भाग रहा है उस घास की ललचा में बिना या समझेते हुए की वो अपना नहीं किसी और का सपना पूरा कर रहे है आपने  सपने जीने के लिया दुनिया की रेस में आंखे बंद कर  भागने की सच में ज़रूरत है क्या ?
या फ़िर अपने विवेक,ज्ञान,बुद्ध और लोगो के सहयोग से भी सफलता अर्जित की जा सकती है .

Wednesday, April 10, 2013

देश में किसानो की स्तिथी

सन 1953 में बनी फिल्म दो बीघा ज़मीन को जितनी बार देखती हूँ आज के किसानो और सिनेमा के किसान किरदार मैं बहुत अंतर नहीं ढूँढ पाती बल्कि सामान्यता अधिक नज़र आता है आज भी खेतो में किसान कड़ी धुप में अपने बैल की जोड़ी के साथ पसीना बहाते,मेहनत करते दिख जाते है विशेषकर छोटो किसान आपने खेत में उपज उपजा कर ज़िन्दगी की लड़ाई को लड़ने के लिए ठीक उसी तरह संघर्ष करते देखे जा सकते है,आज भी लोग अपने किसान होने की मजबूरियों को ढोते हुए जान पड़ते है
महाराष्ट्र में पड़ा सूखा लगभग 7000 से अधिक गाँव को अपने चपेट में लेचूका है  बूँद –बूँद पानी को तरसते लोग और किसान खेती की बात सोच भी नहीं सकते और कोई  भी सरकारी निति प्रभावित किसानो की मदद करती नज़र नहीं आ रही है,महाराष्ट्र में किसानो की आत्महत्या की संख्या भी अन्य राज्यों  से अधिक है प्रकृति या मानवी प्रकोप ने जल की समस्या उत्पन्न की है ये विचार का मुदा है पर कहानी यही आकर रुक नहीं जाती है
देश में फसल की अधिक  पैदावार भी एक समस्या की तरह ही है विशेष रूप से छोटे किसानो के लिए क्यूंकि अधिक उपज भंडारण के साथ उचित दाम पाने की मुश्किले ले कर आती है हल ही में
बंगाल के जालपाईगुडी में सब्जी की खेती करने वाले किसानो ने सडको पर फेक कर सब्ज़ियो को बर्बाद कर दिया क्यूंकि की बाज़ार में बिकने वाले टमाटर के कीमत 30 से 38 रूपये है पर किसानो से माल खरीदने वाले व्यापारी महज 1 से 3 रूपया देने को राजी है सिर्फ टमाटर ही नहीं करेला,बंधगोभी,बैगन अदि सब्जियों को किसान उपज के लगत से कम दाम में बेच कर घाटा सहने से अच्छा उसे बर्बाद करना बेहतर समझता है
चावल,गेहू अन्य अनाजो की अधिक पैदवार भी अनाज की कीमतों को ज़मीन पर ला पटकता है  इससे सिर्फ नुकसान ही होता है भण्डारण की कमी के कारण खुले में अनाज सड़ जाते  है इंसानों से ज्यदा अनाज चूहा खा जाते है आम आदमी को भी अधिक पैदवार से कोई फायदा नहीं कीमते बढ़ती ही जाती है कूल मिलाकर नुकसान ही नुकसान
बिहार जैसे आर्थिक रूप से पिछड़े राज्य की बात करे तो  पलायन एक बड़ी समस्या है विशेषकर छोटे किसान और खेतो में काम करने वाले मजदूरों की  फसल रोपनी और कटनी के समय किसानो की समस्या मजदूर ढूँढना की भी होती है ,
बिहार पूरी तरह मानसून और भूमिगत जल पर निर्भर है सिचाई व्यवस्था नाम मात्र की है ,खेती के उन्नत तरीको के जानकारी के अभाव तथा सरकार के उदासीन बर्ताव ने भी किसानो को तोड़ कर रख दिया है
आज की युवा पीढ़ी को कृषि की तरफ कोई भी चीज प्रेरित नहीं करती खेती करना और जुआ खेलना एक जैसा होता जा रहा है अनिश्चित मानसून,सिचाई की खराब इंतजाम,खाद,कीटनाशक के बढते दाम खेती के खिलाफ होती  नज़र आ रही है दिल्ली से सटे राज्य हरयाणा,उत्तर प्रदेश और राजस्थान के सीमावर्ती किसान खासकर नॉएडा के क्षेत्र के किसान अपनी खेती उक्त ज़मीन बेच कर कोइ रोज़गार करना  अधिक पसंद कर रहे है खेती के स्थान पर खासकर युवा क्यूंकि हमारी समाज में भी खेती करना और जानवर पालना निरक्षर लोगों के काम के रूप में देखा जाता है पर सच्चाई उलटी है किसान फ़सल उगता हो तो सारा देश खाता है पर अंनाज पैदा करने वाला किसान और खेतीहर मजदूर आधी पेट खाना खाकर अक्सर रात बिताता है.




असली परछाई

 जो मैं आज हूँ, पहले से कहीं बेहतर हूँ। कठिन और कठोर सा लगता हूँ, पर ये सफर आसान न था। पत्थर सी आँखें मेरी, थमा सा चेहरा, वक़्त की धूल ने इस...