मंच
पर मन्ना आई , माइक पकड़ा और ऊँची आवाज़ में कहने लगी। मै रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार
से हूँ। ब्राह्मण वंश की लड़कियां बाहर
नहीं घूमती हमारे परिवार की परंपरा थी की लड़कियां गांव के स्कूल में पढ़े, शादी करें, बच्चा
पैदा करें अच्छी बीवी बने,
मां बने और मर जाए यही उनके जीवन का
उद्देश्य समझा जाता है। मुझसे भी यही
उम्मीद की गई थी।
मुझे
यह सही नहीं लगा। मुझे लगा मैं इंसान हूं किसी वास्तु की तरह नहीं जिसका इस्तेमाल
कैसे करना है कोई और तैय करे। मैं अलग
नहीं हूं अपने भाई से हम दोनों इंसान ही है। बंदिश मुझ पर ही क्यों ? मैं तो शक्ति हूँ , तो
मेरे पास है प्रजनन करने की शक्ति नया जीवन देने की शक्ति, तो मैं क्यों दुखी थी क्योंकि मैं ब्राह्मण परिवार से हूं ऊंची जात
की लड़कियों को आगे बढ़ने में मुश्किल होती है, लेकिन
फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी आगे बढ़ती
गई पढ़ाई किया और नौकरी कर रही हूँ। मेरी जीत
की ललक, कुछ अलग करने की ललक ने मुझे भीड़ के झुंड से अलग रहना और इंसान की तरह सोचना समझना की काबिलियत दी। मैंने अब अपने आप को पूरी तरह स्वीकार कर लिया
है, औरत होना ही मेरा सत्य है और मुझे अपने
पर गर्व है।
पूरा हॉल तालियों से गूंज उठता है, दूसरी वक्ता मंच पर आती है।
दूसरी वक्ता ने भाषण शुरू किया। मेरा नाम गायत्री है। मैं ऐसे समाज से हूं जिसे समाज ने सबसे नीचले पायदान पर रखा है। आप मेरे बस्ती में जाए और किसी भी लड़की को ढूंढे जो पढ़ी लिखी हो। शायद उसका नाम स्कूल में लिखा हो पर, वो एक शब्द भी न पढ़ पाए। मेरे उम्र की लड़कियों की शादी हो गई है। मैं जिस समाज से आती हूँ वहाँ का रिवाज़ है की लड़की शादी करें, बच्चा पैदा करें अच्छी बीवी बने, मां बने और मर जाए यही उनके जीवन का उद्देश्य समझा जाता है मुझसे भी यही उम्मीद की गई थी।
मेरे जीवन की लड़ाई तभी शुरू हो गई थी जब मैंने आठवीं पास किया था। उस समय एक ही पड़ाव था मेरे जीवन में ,मेरे बाबा के समझ से मेरी शादी, हमेशा कहते थे अभी भी कहते है शादी करो और हटाव, सब लड़की की शादी करो और झनझट हटाव। मुझे बचपन से पता है की मै परिवार के लिए झंझट हूँ ,अच्छा हुआ मैंने इस बात को बचपन में ही समझ लिया और अपने लिए खुद ही फैसला लेना शुरू कर दिया।
सामाजिक कार्यकर्त्ता की मदद से कस्तुरवा विद्धयालय में नामांकन करा लिया। दसवीं की परीक्षा देने के लिए पैसे नहीं थे, तो ऑकेस्ट्रा में लड़कियों के साथ गाना गाने लगी। पैसे जमा किया और दसवीं पास किया। बाबा भी खुश है क्यों की उनको कुछ करना नहीं पड़ता दारू पी कर घूमते रहते है। मेरे कमाई से घर में मदद हो जाती है। जिंदगी और सिनेमा में बस इतना फर्क है की सिनेमा का अंत होता है ,और ज़िंदगी हर पल नई हो जाती है। जिस समाज का ढांचा ही पुरुष को हर तरफ से फायदा पहुँचने के लिया बनाया गया हो ,उस समाज की हर महिला के लिए ज़िन्दगी को समझ कर रास्ता बनाना मुश्क्लि है।
हॉल फिर से तालियों से गूँज उठता है , सब एक दूसरे की तारीफ़ करते है। खाना -खाते है , मीडिया के लिए फोटो खिचवाते है और हॉल से बहार निकल जाते है।
ध्यान दे: (आप
से अनुरोध है की विज्ञापन को क्लीक करे, शायद आपके एक क्लीक से हम गायत्री की
पढाई में मदद कर पाए।)
Rinki
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (27-10-2020 ) को "तमसो मा ज्योतिर्गमय "(चर्चा अंक- 3867) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
---
कामिनी सिन्हा
Thanks for the appriciation.
Deleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteAapka bahut Dhanyvad.
Deleteसार्थक उम्दा लेखन
ReplyDeleteVibha Ji, Thanks a lot.
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है।
सार्थक रचना, सामायिक परिदृश्य में लड़कियों को हर हाल में सबल बनना ज़रूरी है तभी राष्ट्र का पूर्णांग विकास संभव है - - शुभ कामनाओं सह - - विशेषतः आपके व्यापक सोच के लिए।
ReplyDeleteShantanue Ji, Bahut Dhayawad
Deleteशानदार प्रस्तुति ।
ReplyDelete