शिकायत
साँझ ने कुछ ऐसे की
जैसा कोई
रूठा दोस्त शिकायत कर रहा हो
कहा की मुझे
भूल गया तू
सुबह से
रात तक जगता
खून
पसीना बहा
कागज़ जोड़
रहा
आज हाथ
थाम
उसने
लिया बैठा
उस गाँव
मे जिसे
बहुत
पहले अकेला छोड़ आया था मैं तनहा,
शाम ने धुंध
को लपेटे हुए पूछा
उस शहर
में ऐसा क्या पाया
तूने जो
अपनी मिट्टी को
पीछे छोड़
दिया
गाँव की
पगडण्डी को मोड़
शाम से
नाता तोड़ दिया
रात से
दिन तक यंत्रमानव
बना हुआ
रुक कभी
मेरे साथ यहाँ
दिन की
धुप और रात के अँधेरे के
बीच में
है यही शाम
जो तुझे
थामे हुए है
मेरे साथ
कभी बैठ जरा..
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