क्या
चुने, क्या छोड़े
जिंदगी
इसी जद्दोजहद में
गुजारी
सुबह का
सुर्ख लाल सूरज
रेत पर
लम्बी परछाई बना
सागर में
बुझ गया
मैं बस
रेत के कण चुनता रहा
प्यार बस
सोच तक सिमित रहा
हमेशा
मेरे ख्वाब और उसकी
मजबूरियां
एक दुसरे
की तरफ पीठ किए
खड़े रहे
अपने ही
शोर में बारिश की
बुँदे
कभी सुनी नहीं मैंने
थक कर
बैठने पर
पाया की
बारिश भी सिर्फ तन गिला
कर गई
मन कही
सूखे पत्ते सा किसी साख से
लिपटा
फड़फड़ा रहा है
मेरे इकठ्ठा
किए समान
में कुछ
टूटे रिश्ते,
मुस्कुराती
दोस्ती, और बादलो पर
सवार सपने
है
जिन्हें
मैंने चुने
जिंदगी
में बुने है
रिंकी राउत
बहुत ही उम्दा लेखन आपका......................................
ReplyDeleteThanks for your beautiful words,they are like magic spell.
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