मेरी सलवार पर पड़ी वो खून की छींटे मानो
मुझे बतला रही थी,कुछ भी पहले जैसा रहा नहीं।
एहसास मुझे करा रही थी।
अंदर ही अंदर घबरा रही थी।
बहुत तेज़ थी पीड़ा,
मेरे भीतर जो सहि ना जा रही थी।
रोना मैं जोरो से चाहती थी,
माँ मुझे चुप करा रही थी।
चुप चिल्ला मत पापा है घर में
ऐसा कहकर मुझे चुप करा रही थी।
कमरे के कोने में पड़ी दबी आवाज़ में
सिसके जा रही थी।
मेरी सलवार पर पड़ी वो खून की छींटे मानो
मुझे बतला रही थी,
कुछ भी पहले जैसा रहा नहीं।
रंजना कुमारी
नव वर्ष मंगलमय हो। सुन्दर रचना।
ReplyDeleteThanks a lot
ReplyDeleteHappy New year
ReplyDeleteसुन्दर सृजन।
ReplyDeleteDhanyvad Ji
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