उगने लगे
कंकरीट के वन
उदास मन !
धूप के पांव
थके अनमने से
बैठे सहमे।
मरने न दो
परम्पराओं को कभी
बचोगे तभी।
कुछ कम हो
शायद ये कुहासा
यही प्रत्याशा।
मिलने भी दो
राम और ईसा को
भिन्न हैं कहां !
बिना धुरी के
घूम रही है चक्की
पिसेंगे सब।
चींटी बने हो
रौंदे तो जाआगे ही
रोना धोना क्यों?
सूर्य के पांव
चूमकर सो गए
गांव के गांव।
यूं ही न बहो
पर्वत–सा ठहरो
मन की कहो।
पतंग उड़ी
डोर कटी‚बिछुड़ी
फिर न मिली।
वाह, पढ़ने के लिए मजबूर करती रचना
ReplyDeleteसादर
Dhanyawad
ReplyDeleteभवपूर्ण हाइकु ।
ReplyDeleteDhanyavad..Sangeeta ji
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDeleteSukariya Ranju Ji
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