Sunday, July 24, 2022

जगदीश व्योम-सूर्य के पांव, चूमकर सो गए, गांव के गांव

उगने लगे

कंकरीट के वन
उदास मन !
  
धूप के पांव 
थके अनमने से 
बैठे सहमे।
   
मरने न दो
परम्पराओं को कभी
बचोगे तभी।
  
कुछ कम हो 
शायद ये कुहासा
यही प्रत्याशा।
  
मिलने भी दो
राम और ईसा को
भिन्न हैं कहां !
  
बिना धुरी के
घूम रही है चक्की
पिसेंगे सब।
  
चींटी बने हो 
रौंदे तो जाआगे ही
रोना धोना क्यों?
  
सूर्य के पांव
चूमकर सो गए
गांव के गांव।

यूं ही न बहो
पर्वत–सा ठहरो
मन की कहो।
  
पतंग उड़ी 
डोर कटी‚बिछुड़ी
फिर न मिली।

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