Tuesday, June 11, 2019

जिंदगी की परछाई


शहर के भीड़ में 
गाडिओं के शौर में
बाजार के चकाचौंध में 
नहीं  
गोरैया ने आवाज़ लगाई
इस कंक्रीट के जंगल में नहीं
गाँव में ज़िन्दगी
आज भी है समाई

आज भी चिडियों के झुंड देते है दिखाई 
शाम में गोधूली उड़ती है
आकाशवाणी के बोल देती है सुनाई
सुबहे की बेला में
लिपा हुआ चूल्हा और आँगन 
सस्कृति  की  केवल छाप नहीं 
गांव में संस्कृति ही छाई

बिना पढाई के बोझ तले दबा बचपन
आम,बेरी ,महुआ,अमरुद को घेरे बच्चे
हसते,मुस्कुराते बच्चे 
हवाओ में महुआ की महक
खेतो में पुरवाई की चहक




आज भी है गाँव में यादों की महक
सोहर, फगुआ के धुन है अलग 
रिश्ते में गर्माहट 
रोटी और सब्जी में 
ताज़गी और अपनापन 
दादा -दादी की याद 
गांव की हवाओ ने रखे है 
अपने साथ 
जिंदगी इस कॉन्क्रीट के जंगल में 
नहीं
यादे और ज़िन्दगी साँस लेती है 
मेरे गांव में  ही




रिंकी

7 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार जून 13, 2019 को साझा की गई है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    Replies
    1. Thaanks Yashoda Ji...Google plus band hone ke aap kis plateform par active hai

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  2. गाँव और शहर का फर्क हमेशा से है और रहेगा ...
    खुली हवा और कंक्रीट का जंगल ... यही पहचान है गाँव की ... खुशबू है जहाँ जीवन की ...

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  3. बहुत खूब लिखा है आपने!!!
    शुक्रिया ..इतना उम्दा लिखने के लिए !

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