मस्त होके गली से गुनगुनाते निकले
हर लफ्ज़ में था प्यार दिल चुराते निकले।
इश्क़ का मारा हुआ और क्या करता वह
मय खाने से पीकर लड़खड़ाते निकले
अपने हाले दिल की बात किसे बताता
उनके ही ख्यालों में गुनगुनाते निकले।
घायल था जो ज़िगर,बयां और क्या करता
हिया के ज़ख्मों पर मरहम लगाते निकले।
किसे पता था वह दगा दे कर जाएगी
अपने सिर का बोझ ख़ुद ही उठाते निकले।
दौलत देख कर इरादे क्यों बदल जाते
पैग़ाम - ए - मशाल इश्क़ को जलाते निकले।
न पूछ कि प्यार में कितना तड़पा है "बिन्दु"
दिल पर पत्थर रखके दिल बहलाते निकले।
स्वरचित मौलिक - बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा - ( बिन्दु )
अच्छे शेर हैं ... बहुत कमाल लिखा है ...
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