Sunday, November 3, 2019

खामोश रिस्ता

ख़ामोशी भी एक तरह की सहमति है
मैं चुप रहकर तेरे जाने को रोक न सका
मजबूरी का रोना हम दोनो ने रोया
समाज की रीत, परिवार की इज़्ज़त
मजबूरियॉ दोने ने गिनाए

ख़ामोशी ज़हर की तरह फैली
प्यार का खिलना नामुमकिन था
हम थे तो आमने –सामने
लेकिन ख़ामोशी की एक खाई सी
हमारे बीच पट्टी रही

एक सवाल
कभी जो कानो में शौर करता है
क्या प्यार नहीं है?
हम दोनों के दरमियाँ
फिर एक लंबी ख़ामोशी
हमेशा के लिए छा जाती है

कोई रिस्ता न सही राबता
हमदोनो के बीच ज़रूर है
उन रिस्तो से ज़्यदा शकून
देता है तेरा-मेरा अनकहा रिस्ता

रिंकी

6 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 04 नवम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. कोई रिस्ता न सही राबता
    हमदोनो के बीच ज़रूर है
    उन रिस्तो से ज़्यदा शकून
    देता है तेरा-मेरा अनकहा रिस्ता..

    भावपूर्ण एवं मार्मिक, प्रणाम।

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  3. प्रेम तो हो ही जाता है, धर्म, जात,रंग सबको अनदेखा करके ...

    लेकिन संस्कार, समाज, रीति रिवाज, परिवार की इज्जत आड़े आ जाते हैं...

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  4. सुंदर रचना। कुछ वर्तनी की गलतियाँ ठीक कर लीजिए बस।

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  5. वाह! हृदयस्पर्शी रचना।

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  6. वाह! हृदयस्पर्शी रचना।

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