उदासी के दरख़्तों पर हवा पत्तों पे ठहरी थी
मगर इक रोशनी बच्चों की मुस्कानों पे ठहरी थीहमें मझधार में फिर से बहा कर ले गया दरिया
हमारे घर की पुख़्ता नींव सैलाबों पे ठहरी थी
ज़रा से ज़लज़ले से टिक नहीं पाये ज़मीं पर हम
हमारी शख़्सियत कमज़़ोर दीवारों पे ठहरी थी
यहाँ ख़ामोशियों ने शोर को बहरा बना डाला
हमारी ज़िन्दगी किन तल्ख़ आवाज़ों पे ठहरी थी
छलक कर चंद बूँदें आ गिरीं ख़्वाबों के दरिया से
कोई तस्वीर भीगी-सी मेरी पलकों पे ठहरी थी
Unknown
बेहतरीन गज़ल।
ReplyDeleteसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २अगस्त २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
धन्यवाद।
Deleteज़रा से ज़लज़ले से टिक नहीं पाये ज़मीं पर हम
ReplyDeleteहमारी शख़्सियत कमज़़ोर दीवारों पे ठहरी थी
सादर वेहतरीन गजल
धन्यवाद।
Deleteबहुत ही सुन्दर सार्थक और भावप्रवण गजल
ReplyDeleteधन्यवाद।
ReplyDeleteछलक कर चंद बूँदें आ गिरीं ख़्वाबों के दरिया से
ReplyDeleteकोई तस्वीर भीगी-सी मेरी पलकों पे ठहरी थी
....बहुत खूब,,,
धन्यवाद।
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद।
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteधन्यवाद।
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