Wednesday, July 31, 2024

उदासी के दरख़्तों पर हवा पत्तों पे ठहरी थी

 उदासी के दरख़्तों पर हवा पत्तों पे ठहरी थी

मगर इक रोशनी बच्चों की मुस्कानों पे ठहरी थी

हमें मझधार में फिर से बहा कर ले गया दरिया
हमारे घर की पुख़्ता नींव सैलाबों पे ठहरी थी

ज़रा से ज़लज़ले से टिक नहीं पाये ज़मीं पर हम
हमारी शख़्सियत कमज़़ोर दीवारों पे ठहरी थी

यहाँ ख़ामोशियों ने शोर को बहरा बना डाला
हमारी ज़िन्दगी किन तल्ख़ आवाज़ों पे ठहरी थी

छलक कर चंद बूँदें आ गिरीं ख़्वाबों के दरिया से
कोई तस्वीर भीगी-सी मेरी पलकों पे ठहरी थी

Unknown

12 comments:

  1. बेहतरीन गज़ल।
    सादर।
    -----
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २अगस्त २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. ज़रा से ज़लज़ले से टिक नहीं पाये ज़मीं पर हम
    हमारी शख़्सियत कमज़़ोर दीवारों पे ठहरी थी
    सादर वेहतरीन गजल

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  3. बहुत ही सुन्दर सार्थक और भावप्रवण गजल

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  4. छलक कर चंद बूँदें आ गिरीं ख़्वाबों के दरिया से
    कोई तस्वीर भीगी-सी मेरी पलकों पे ठहरी थी
    ....बहुत खूब,,,

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